Wednesday 20 April 2016

पाकिस्तान बनने की नीव - भाग चार - मेरी कही

पाकिस्तान बनने की नीव - भाग चार - मेरी कही
------------------------------------------------
अब तक आपने पढ़ा की 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने एक दूसरे को अघोषित समर्थन किया। उम्मीदों के विपरीत कांग्रेस और मुस्लिम लीग को चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली। लेकिन कांग्रेस ने लीग के साथ मिल कर सरकार नहीं बनाई। सरकार बनाने के तुरंत बाद कांग्रेस ने MMCP के जरिये मुस्लिम समुदाय में अपनी पैठ को मजबूत करना शुरू किया। जिसका मुस्लिम लीग ने अपने नेताओं और अखबारों के जरिये बखूबी जवाब दिया। अब आगे *******
UP में जब पहला उपचुनाव हुआ तब कांग्रेस के रफ़ी अहमद किदवई चुने गए , मुस्लिम लीग ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था। उस समय लीग और कांग्रेस में सरकार को बनाने के लिए मंत्री पदों के लिए बातचीत चल रही थी। आपसी सम्बन्ध अच्छे थे।
लेकिन उसके बाद MMCP के जरिये कांग्रेस ने जब मुस्लिम मतों में सेंध लगानी शुरू की और आपसी कडवाहट बढ़ती चली गयी , ऐसे माहौल में उरई-झाँसी-हमीरपुर की रूरल सीट पर उपचुनाव घोषित हुआ। इस सीट पर पहले स्वतंत्र उम्मीदवार चुनाव जीते थे लेकिन उनकी मौत हो जाने से चुनाव दोबारा कराये जाने थे। ये सीट मुस्लिम सीट थी जहाँ वोट देने का अधिकार कम्युनल अवार्ड के तहत सिर्फ मुस्लिम लोगों को था। और कुल वोट सिर्फ 6700 थे।
कांग्रेस ने निसार अहमद खान शेरवानी साहब को अपना उम्मीदवार बनाया। निसार साहब पहले पोस्ट ऑफिस डिपार्टमेंट में सुप्रिटेंदेंट थे। असहयोग आन्दोलन में इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस से जुड़े थे। यूँ तो अलीगढ में रहने लगे थे और 1937 के जनरल एलेक्शन में पहले किसी और सीट से चुनाव लड़कर हार चुके थे।
इस तरह एक आउट साइडर को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाकर इसकी शुरुआत की। जैसा की अपेक्षित था झाँसी क्षेत्र में लोकल कार्यकर्ताओ ने इसे पसंद नहीं किया। अंदरूनी कलह और खीचतान ने चुनाव प्रचार को बुरी तरह प्रभावित कर दिया।
कांग्रेस पार्टी के स्टार मुस्लिम प्रचारक मौलाना अताउल्लाह शाह बुखारी ने किसी और कांफ्रेंस में अपनी मौजूदगी को जरूरी बता आने से मना कर दिया। मौलाना हुसैन अहमद मदनी जी देवबंद के सबसे बड़े आलिम थे , पूरी दुनिया में जिनका नाम था उन्होंने ये कहते हुए मना कर दिया की झाँसी में उन्हें कोई नहीं जानता। खुद रफ़ी अहमद किदवई जी इस चुनाव के प्रभारी थे वो भी निर्लिप्त थे। न उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए पैसो की व्यवस्था की न कार्यकर्ताओ की।
ऐसे में दुखी होकर शेरवानी साहब के भाई फ़िदा जो उनके चुनाव प्रचार के मेनेजर थे , ने नेहरु जी को एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने लिखा " कांग्रेस जो खुद को एक सोशलिस्ट पार्टी कहती है उसने जिस तरह की उदासीनता और लापरवाही दिखाई है वो भी तब जब वो सत्ता में है साबित करती है की एक मुसलमान का कांग्रेस में कोई स्थान नहीं है। "
फ़िदा जी ने लिखा की अगर उनके भाई उम्मीदवारी वापस नहीं लेते हैं तो उनका हारना निश्चित है।
खुद निसार साहब ने भी एक पात्र नेहरु जी को लिखा की पिछले चुनाव में वो प्रचार में सारा पैसा लगा चुके हैं और इस चुनाव के लिए उनके पास पैसा नहीं बचा है। उधर मुस्लिम लीग के नेता राजा महमूदाबाद ने 15000 रूपये लीग के चुनाव प्रचार के लिए भेजे हैं। निसार साहब ने लिखा की मुस्लिम लीग धर्म को चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बना रही है और "इस्लाम खतरे में" नारा उनका प्रोपेगेंडा है। लीग ने इस चुनाव को कुफ्र और इस्लाम के बीच लड़ाई में बदल दिया है। उन्होनेनेह्रु जी से अनुरोध किया की वो प्रचार के लिए उलमाओ को भेजें जिनका कांग्रेस से जुड़ाव है।
पिछले चुनावों में कांग्रेस खुद फ़ाइनेन्शियलि कमजोर हो चुकी थे। नेहरु जी ने पर्सनल श्योरिटी पर 700 रूपये लेकर निसार साहब को भेजे। लेकिन वो इस बात से खुश नहीं थे की मुस्लिम लीग के दुष्प्रचार के विरोध के लिए उलमाओ का सहारा लिया जाये। उन्होंने जवाबी चिट्ठी में निसार साहब को अपना प्रचार आर्थिक आधार पर करने को कहा। और मौलाना और उल्माओ के सहयोग से दूर रहने को कहा।
खैर इसके बाद नेहरु जी ने इस चुनाव को खुद की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। उन्होंने तमाम हिन्दू विधायको जो आस पास के क्षेत्र के थे उन्हें झाँसी प्रचार के लिए भेजा। MMCP के अशरफ साहब को तमाम विरोध के बावजूद झाँसी रवाना किया ताकि वो मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस की नीतियों के आधार पर समझा सकें। हालांकि झाँसी के कार्यकर्ताओ ने नहरू जी को वार्न किया की अशरफ साहब को अपने कम्युनिस्ट विचारो की वजह से बेहद होस्टाइल लोगों का सामना करना पड़ सकता है।
और अपने सोशलिस्ट एजेंडे के साथ ही नेहरु जी ने मौलाना आजाद साहब को मौलाना मदनी साहब के साथ झाँसी का दौरा करने के निर्देश दिए।
नेहरु जी ने शौकत अली साहब के पेपर खिलाफत में छपी खलीकुज्जमा ( नेहरु जी के परम मित्र) साहब की सांप्रदायिक अपील का विरोध किया और उनसे जवाब माँगा। और साथ में नेहरु जी ने रफ़ी अहमद किदवई साहब के कहने पर बहुत से मौलानाओ और उल्माओ को झाँसी के लिए रवाना भी किया। ताकि सोशलिस्ट और धार्मिक प्रचार दोनों साथ में चले।
झाँसी से मुस्लिम लीग के उम्मीदवार रफ़ी उद्दीन अहमद साहब थे। पिछले चुनाव में रफ़ी साहब स्वतंत्र उम्मीदवार थे और बहुत कम वोटो के मार्जिन से हारे थे। वो मलखान राजपूत कास्ट से आते थे। चुनाव के शरू में ही वो जाति पंचायत के जरिये अपने हक़ में अपील करवा कर अपनी हवा बनवा चुके थे एक बढ़त प्राप्त कर चुके थे।
लीग की तरफ से चुनाव प्रचार की कमान खिलाफत मूवमेंट के वेटरन शौकत अली साहब ने संभाली। अपने चुनाव सभाओ में उन्होंने इस्लाम खतरे में है का नारा बुलंद किया। उन्होंने इंडिया के हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में संभावित सिविल वार का जिक्र किया और कहा की वो भारत का स्पेन बना देंगे।
और ऐसे सांप्रदायिक माहौल में रफ़ी उद्दीन अहमद साहब को एक चिट्ठी डिलीवर हुई। ये चिट्ठी नेहरु जी ने लिखी थी। और इसमें उन पेमेंट्स का जिक्र था जो कांग्रेस ने अपने मौलानाओ और उल्माओ को करनी थी। मूलतः ये चिट्ठी रफ़ी अहमद किदवई साहब को डिलीवर होनी थी लेकिन लीग के रफ़ी साहब को पहुँच गयी। नामो की ग़लतफ़हमी ने लीग को एक हथियार दे दिया।
यूँ तो इस चिट्ठी का असितत्व प्रश्नों के घेरे में है कांग्रेस ने ऐसी किसी भी चिट्ठी का हमेशा खंडन किया है। लेकिन एक सच ये भी है की झाँसी के चुनावों में ऐसी एक चिट्ठी का लीग ने खुलकर इस्तेमाल किया। कांग्रेस के चुनाव प्रचार में लगे मौलाना और उल्माओं को इस्लाम का गद्दार घोषित किया गया। ऐसा दाग जो आगे पूरी जिंदगी उन पर लगा रहा।
मुस्लिम लीग ने देवबंद के जाने माने धार्मिक गुरु मौलाना अशरफ अली थानवी साहब से भी मदद मांगी। लीग के एक कार्यकर्त्ता ने थानवी साहब को चिट्ठी लिख कर एक फतवा देने का आग्रह किया। तब तक थानवी साहब लीग से बहुत मुत मइन नहीं थे। वो लीग के नेताओं के नास्तिक होने से खुश नहीं थे और उनके इस्लामी तौरतरीको पर एतराज रखते थे। लेकिन थानवी साहब की कांग्रेस से नाराजगी खिलाफत मूवमेंट से ही थी। थानवी साहब गाँधी जी को सार्वजनिक रूप से शातिर और ऐय्यार बोल चुके थे।
अपने सहयोगियों से मशवरे के उपरान्त थानवी साहब ने लीग को सपोर्ट न करने का निर्णय लिया। लेकिन उन्होंने फतवे के अनुरोध में ये राय जरूर टेलीग्राम से भेजी की कांग्रेस को वोट न दिया जाए।
अंत में नेहरु चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में खुद प्रचार करने झाँसी पहुंचे। चुनाव का नतीजा वोट पड़ने से दो दिन पहले तभी घोषित हो गया था जब चुनाव प्रचार करते नेहरु की कार पर पत्थर बरसे थे।
लीग 60% वोट पाकर आराम से चुनाव जीत गयी। शौकत अली साहब ने जीत के बाद घोषणा की कि आगे अगर कांग्रेस एक भी चुनाव जीती तो वो अपना नाम बदल देंगे। लीग इस जीत से बेहद उत्साहित थी।
लेकिन उत्साहित नेहरु भी थे। उन्होंने कांग्रेस को लिखे अपने विश्लेषण में कहा की रूरल क्षेत्रो में कांग्रेस को लीग के ऊपर बढ़त मिली है। कांग्रेस ने करीब 40% फीसदी वोट पायें हैं जो MMCP प्रोग्राम की सफलता का सबूत हैं। नेहरु जी ने लीग के सांप्रदायिक प्रचार पर दुःख जताया और कहा की लोगों को कुरआन पर हाथ रखकर शपथ दिलवाई गयी की वो लीग को वोट दें।
अंत में नेहरु जी ने कहा की बाहरी उम्मीदवार होते हुए भी कांग्रेस को इतने वोट मिले ये उनके MMCP प्रग्राम की सफलता है। उन्होंने कहा की इस चुनाव में दोनों पक्षों की तरफ से देश भर से मुस्लिम प्रचार करने आये। कांग्रेस की तरफ से आये मुस्लिम अब वापस जाकर अपने अपने क्षेत्रो में कांग्रेस नीतियों का प्रचार करेंगे।
अब अगले अंक में गढ़वाल और बिजनोर का इलेक्शन। क्या हुआ जब मुस्लिम लीग की तरफ से जीते विधायक ने लीग से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस को ज्वाइन किया और नैतिकता के आधार पर फिर से चुनाव लड़ा। क्या वो ऐसे सांप्रदायिक माहौल में सफल हो पाए जानिए अगली क़िस्त में ?

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही भाग तीन

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही भाग तीन
----------------------------------------------
पिछले अंक में आपने पढ़ा की किस तरह कांग्रेस ने MMCP संगठन की मदद से मुस्लिम लीग पर आक्रामक रूख अपनाया और अपने समाजवादी एजेंडे के सहारे मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस में शामिल होने का आमंत्रण दिया। इस भाग में मुस्लिम लीग का कांग्रेस को जवाब :
कांग्रेस के तीखे प्रहारों से चिंतित सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने वाले शायर मोहम्मद इकबाल ने जिन्नाह को चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी में उन्होंने जिन्नाह से अनुरोध किया की जिन्नाह भारत और भारत के बाहर पूरी दुनिया को साफ़ शब्दों में बताएं की हिंदुस्तान में मुस्लिम समुदाय एक अलग राजनैतिक यूनिट है। भारत के मुस्लिम की समस्या सिर्फ आर्थिक ही नहीं है , बल्कि आर्थिक समस्या से ज्यादा बड़ी समस्या इंडियन मुस्लिम के लिए उसकी पहचान है। कल्चरल प्राब्लम किसी भी आर्थिक समस्या से बड़ी है।
कांग्रेस ने अपने आफ़ेन्सिव में मुस्लिम लीग को जमींदारो और नवाबो की पार्टी साबित किया था। उसे आम जनता से दूर बताया था। कांग्रेस के अनुसार मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार की साम्राज्य वादी नीतियों को बढ़ावा देने के लिए बनी थी।
इन आरोपों के जवाब में मुस्लिम लीग ने अपने अन्दर बहुत सुधार किये। सबसे पहले उसने अपना सविधान बनाया। उसे धार्मिक आधार के साथ सुधारवादी भी बनाया। मुस्लिम लीग ने अपने उद्देश्य में भारत की स्वतंत्रता को सबसे ऊपर रखा। और इसके लिए सभी कानूनी और लोकतान्त्रिक रास्ते अपनाने की वकालत की। मुस्लिम लीग ने पूरे भारत में मेंबर भर्ती के लिए दो आना प्रोग्राम चलाया। जिला और तहसील स्तर पर तमाम कमेटियां गठित करके पार्टी के स्वरुप को लोगों की भागीदारी के लिए अनुकूल बनाया।
MMCP के अशरफ साहब के लेखों के जवाब देने के लिए मुस्लिम लीग ने महमूदाबाद के राजा को अधिकृत किया। राजा महमूदाबाद ने MMCP के प्रोपेगेंडे को दरकिनार करते हुए इस्लाम को आधुनिक समाज की समस्त परेशानियों का आदर्श हल बताया। उन्होंने कांग्रेस के समाजवाद के मुकाबले इस्लाम द्वारा दिखाए समाजवाद को बेहतर बताया। उन्होंने कहा की इस्लाम में सभी मुस्लिम आपस में भाई हैं फिर भले कोई गोरा हो , काला हो , किसी जाति का हो , अमीर या गरीब हो , अफ्रीकन , अरब या हिन्दुस्तानी हो। सभी भाई हैं समान हैं। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए कहा की खुद स्टालिन भी इस्लामिक समाजवाद के रास्ते पर ही चल रहा है। उन्होंने कहा की विश्व में समाजवाद का सन्देश देने वाले सर्वप्रथम खुद मोहम्मद साहब थे।
इसके अलावा मुस्लिम लीग ने ककी सामाजिक सुधारो की मांग की , मजदूरों के काम के घंटे निश्चित करने के लिए कहा , न्यूनतम मजदूरी निश्चित करने को कहा। स्वच्छ घरो की वकालत की। लघु उद्योगों की मदद करने की मांग की। कुल मिलाकर उन्होंने कांग्रेस के मुकाबले लीग को धार्मिक आधार से उठाकर राजनैतिक धरातल पर खड़ा किया।
लेकिन मुस्लिम लीग सिर्फ कांग्रेस को जवाब देने तक ही नहीं रुकी। लीग ने कांग्रेस सरकारों और उसकी नीतियों पर कड़ा हमला बोला। सबसे प्रमुख हमला खुद गाँधी जी की वर्धा शिक्षा योजना पर था।
तमाम देश में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद गाँधी जी ने ग्रामीण बच्चो की शिक्षा के लिए एक अनूठी योजना दी थी। जिसे उन्होंने रूरल नेशनल एजुकेशन थ्रू विलेज हेंडीक्राफ्ट नाम दिया था। कांग्रेस ने जामिया के डॉ जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई जिसकी रिपोर्ट के आधार पर इसे लागू किया जाना था। जाकिर साहब ने ग्रामीण बच्चो के लिए सात सालों की शिक्षा निर्धारित की। और इसमें आठ विषय रखे।
गाँधी जी का जोर था की इस व्यवस्था में धार्मिक शिक्षा न हो बल्कि स्वरोजगार पर जोर हो। हेंडीक्राफ्ट के जरिये बच्चे कमा सकें और अपनी शिक्षा को खुद वहन करें। गाँधी जी ने तमाम शिक्षा को चरखे के जरिये सिखाने पर जोर दिया।
यूँ तो इस वर्धा स्कीम की बहुत से लोगों ने आलोचना कि. लेकिन सबसे तीखी आलोचना मुस्लिम लीग ने की। राजा पीरपुर कि कमिटी ने इस स्कीम की समीक्षा करके इसकी आलोचना तैयार की, इस आलोचना के मुख्य बिंदु :
1. मुस्लिम लीग का सबसे बड़ा आरोप था की कांग्रेस इस स्कीम के जरिये मुस्लिम बच्चो का ब्रेनवाश करना चाहती है. जिस प्रकार सोवियत संघ में कम्युनिस्ट सरकार ने शिक्षा व्यवस्था और प्रोपेगेंडा के जरिये तमाम धर्मो को ख़तम कर दिया, वैसे ही कांग्रेस मुस्लिम समुदाय की अलग पहचान को ख़तम करना चाहती है।
2. दूसरी प्रमुख आलोचना गाँधी के अहिंसा के सिद्धांत पर हुई। अहिंसा भी शिक्षा के मूल में थी। लीग ने कहा की कुछ अनिवार्य परिस्थितियों में जिहाद हर एक मुस्लिम का फर्ज है और अहिंसा इस फर्ज के खिलाफ है।
3. पीरपुर रिपोर्ट के अनुसार हिन्दू धर्म की दीक्षा सिर्फ ब्राह्मणों के लिए रिजर्व है लेकिन मुस्लिम समुदाय में ऐसा नहीं है। मुस्लिम समुदाय के लिए धर्म जीने का तरीका है। किसी भी सम्मानित परिवार के किसी भी बच्चे को ये योग्यता होनी चहिये की वो नमाज को लीड कर सके जिसके लिए शरिया का ज्ञान होना जरूरी है। पीरपुर रिपोर्ट ने नैतिक शिक्षा को धार्मिक शिक्षा के ऊपर रखे जाने का भी विरोध किया।
4. पीरपुर रिपोर्ट में इस बात की बड़ी तीखी निंदा हुई की इतिहास के सिलेबस में अमीर खुसरो, कबीर , अकबर , दारा शिकोह जैसे हिंदुत्व की तरह झुके लोगों पर ज्यादा जोर है बजाय उन मुस्लिम नायको के जिनका आउटलुक इस्लामिक था। पीरपुर कमिटी ने इस बात की भी तीखी भ्रत्सना की कि सिर्फ हिन्दू राजाओं जैसे हर्ष, पृथ्वी राज , शिवाजी , रंजित सिंह को ग्लोरी फाई किया गया है।
5. पीरपुर रिपोर्ट ने इस बात की तीखी निंदा की की इस स्कीम में बच्चो को मातृभूमि के लिए प्यार करना बताया गया है बजाय इसके की अपने धर्म से प्यार करो , जो की गैर इस्लामिक है।
6. इसी आधार पर संगीत और नृत्य को भी पाठ्यक्रम में रखने को गलत घोषित किया गया।
शिक्षा के बाद सबसे बड़ा मसला भाषा का था। सम्पूर्नानद UP में संस्कृत निष्ठ हिंदी लाना चाहते थे। कांग्रेस हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देना चाहती थी। लीग दोनों के ही खिलाफ थी। लीग उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाने की पक्षधर थी। और इन सबके अलावा दो समस्या और भी थीं। एक तिरंगे झंडे की और दूसरी वन्दे मातरम की। लीग दोनों के ही सख्त खिलाफ थी।
मुस्लिम लीग ने जिन्नाह को महात्मा गाँधी के समकक्ष खड़ा करने एक लिए उन्हें कायदे आजम की उपाधि दी। जिनाह ने अंग्रेजो के प्रतीक सूट बूट को छोड़कर शेरवानी , पायजामा और टोपी धारण की।
तिरंगे के मुकाबले लीग अपना नया झन्डा लेकर आई जो उसके मुताबिक़ सदियों पुराना था और पैगम्बर साहब द्वारा दिया गया था।
और इन सब आलोचना का सम अप राजा महमूदाबाद ने ये कह कर दिया की जब कांग्रेस नारा लगाती है की दुनिया भर के मजदूरों एक हो तो कोई एतराज नहीं करता। लेकिन जब लीग कहती है की दुनिया भर के मुस्लिम एक हो , तो सबको समस्या होती है।
अगले अंक में, फिर क्या हुआ जब UP में बाई इलेक्शन हुए। किस पार्टी की जीत हुई ? इन तमाम प्रोपेगेंडे के बीच जनता ने किसकी सुनि. अगले अंक में

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही भाग दो

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही भाग दो
--------------------------------------------
पिछले अंक में चर्चा 1937 में हुए उत्तर प्रदेश चुनाव की थी जिसमे कांग्रेस ने 133 सीट जीतकर सरकार बनाई लेकिन मुस्लिम लीग को अपनी सरकार में शामिल नहीं किया। अब उसके आगे की कहानी।
1937 में जवाहर लाल नेहरु कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उनकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था और वही चुनाव अभियान के मुख्य प्रचारक भी थे। हालाँकि कांग्रेस ने 9 मुस्लिम सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे, लेकिन उसे किसी भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी। लेकिन नेहरु जी निराश नहीं थे, बल्कि अपने चुनाव अभियान में जिस तरह मुस्लिम जनता ने उन्हें सुना था उससे उत्साहित थे। उनका मानना था की मुस्लिम कांग्रेस के खिलाफ नहीं हैं बल्कि उन्हें कांग्रेस के प्रति जागरूक किये जाने की जरूरत है।
नेहरु जी ने घोषणा की कि अब मुस्लिम नेताओं के साथ 1916 जैसा पैक्ट या समझौतों की जरूरत नहीं है बल्कि कांग्रेस को खुद मुस्लिम समुदाय तक पहुंचना होगा।
इस काम के लिए नेहरु जी ने इलाहाबाद में कांग्रेस में ही एक संगठन बनाया "मुस्लिम मास कांटेक्ट प्रोग्राम" या MMCP . इसकी बागडोर नेहरु जी ने तीन नौजवान मुस्लिम युवाओ को दी। मोहम्मद अशरफ, ZA अहमद और सज्जाद जहीर। ये तीनो ही युवा इंग्लैंड से शिक्षा पाए थे, इन फैक्ट पीएचडी कर चुके थे और कम्युनिस्ट थे। इन तीनो के ऊपर जिम्मेदारी डाली गयी की वो मुस्लिम मासेस को साम्प्रदायिकता से बाहर निकालेंगे और पुराने पड़ चुके मुस्लिम नेतृत्व के चंगुल से छुड़ाकर कांग्रेस में लायेंगे। सीधे शब्दों में इन तीनो को मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस का चार आना मेंबर बनाना था।
MMCP ने इस काम के लिए अशरफ साहब की लीडरशिप में हिन्दुस्तान नाम का उर्दू अखबार निकालना शुरू किया जिसमे वो एवं बाकी साथी अपने लेख लिखते थे। इन लेखों के माध्यम से अशरफ साहब उम्मीद करते थे की वो मुस्लिम समुदाय को रुढिवादिता से मुक्त करा सकेंगे और प्रगतिशील बना सकेंगे। इसके लिए उन्होंने जो रास्ता अपनाया वो शुद्ध रूप से साम्यवादी था। उन्होंने अपने लेखो के जरिये मुस्लिम समुदाय को समझाने की कोशिश की की कोई भी धार्मिक समूह एक जैसा नहीं हो सकता, उसमे भी अलग अलग वर्ग होते हैं मुस्लिम समुदाय में सभी मुसलमानों की समस्याएं एक जैसी नहीं हो सकती। उनमे भी मुस्लिम किसान और मजदूर की समस्या अलग होगी, एक मुस्लिम व्यवसायी, जमींदार की समस्या अलग होगी। मुस्लिम किसान और मजदूर को अपने हिन्दू किसान और मजदूर के साथ खड़ा होकर अपने हक़ की लड़ाई लड़नी होगी।
उनके अनुसार असली समस्या धर्म को बचाने की नहीं , बल्कि भूमिहीनों को भूमि दिलाने की, रेहन पर लिए खेतो का रेहन पक्का रखने की, भुखमरी से बेरोजगारी से है। इसके लिए मुस्लिम समुदाय को अपने वर्ग के साथ जो की किसान और मजदूर का है, उसके साथ खड़ा होना होगा।
इन्होने खास तौर पर मुस्लिम लीग को अपना निशाना बनाया और आरोप लगाया की 1907 में स्थापना के बाद से ही लीग ब्रिटिश एजेंट की तरह कार्य करती रही है। ये किसान मजदूर विरोधी पार्टी है। इन आर्टिकल्स में मुस्लिम लीग को कांग्रेस को कमजोर करने का आरोप हमेशा लगता रहा।
सबसे बड़ी मुसीबत कांग्रेस की हिन्दू पहचान की थी। जो मुस्लिम युवको के कांग्रेस में शामिल होने में बाधक थी. खिलाफत आन्दोलन के ख़तम होने के बाद हुए दंगो में ये पहचान और मजबूत होकर उभरी थी। अशरफ साहब ने स्वीकार किया की इन आरोपों में सच्चाई भी है। लेकिन उन्होंने मुस्लिम समुदाय से आग्रह किया की वो बड़ी संख्या में कांग्रेस से जुड़े, ताकि कांग्रेस की हिन्दू पहचान ख़तम हो सके। कांग्रेस सम्पूर्ण रूप से भारत की प्रतिनिधि बन सके। उन्होंने कांग्रेस की हिन्दू पहचान के लिए हिन्दू व्यवसायियों को जिम्मेदार बताया जो कांग्रेस से जुड़े थे। अशरफ का आग्रह था की मुस्लिमो के कांग्रेस में जुड़ने से ये लोग कमजोर पड़ेंगे और आम जनता का प्रतिनिधित्व कांग्रेस में बढेगा। कांग्रेस में सांप्रदायिक तत्व कमजोर होंगे और कांग्रेस सही मायनों में एक रेडिकल पार्टी बन सकेगी।
MMCP ने कई नयी शुरुआत की जिसमे हिंदी या उर्दू की जगह हिन्दुस्तानी भाषा को लोकप्रिय बनाने का प्रयास भी था।
इन प्रयासों के बाद मुस्लिम समुदाय से बहुत से लोग कांग्रेस से जुड़ने भी लगे। कांग्रेस के इन प्रयासों से मुस्लिम लीग को अपना आधार खिसकता महसूस होने लगा। किस तरह मुस्लिम लीग ने अपना जवाब दिया अब ये अगले अंक में …….

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही

पाकिस्तान बनने की नीव - मेरी कही
------------------------------------
सामान्य इतिहास में पाकिस्तान को जिन्नाह की जिद कहा जाता है। भारत के विभाजन के पीछे जिन्नाह को ही दोषी बताया जाता है। हिंदुत्व के समर्थक गाँधी जी को भी बराबर का दोषी मानते हैं जिन्होंने कहा था की पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। शायद इसीलिए गोडसे ने विभाजन के बाद गाँधी जी की लाश बिछा दी थी।
लेकिन ये हुआ क्यों ? जिन्नाह पाकिस्तान के लिए आमादा क्यों हुए ? पाकिस्तान बनने के लिए इतिहासकार किसी एक घटना के ऊपर एकमत नहीं हैं। कोई पाकिस्तान बनने की नीव सन 28 में नेहरु रिपोर्ट को मानता है , कोई शिमला नेगोशिएशन को , कोई गाँधी जिन्नाह निगोशिएशन के फेल होने को।
लेकिन अधिकांश इतिहासकार 1937 में हुए UP के चुनावों को पाकिस्तान बनने की नीव मानते हैं।
1930-31 के गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन के बाद गोल मेज सम्मलेन हुए। और भारत की जनता को सत्ता में हिस्सेदारी देने के लिए अंग्रेजो ने प्रदेशो में असेम्बली चुनाव का चारा दिया। एक तरह से ये सत्ता में हिस्सेदारी का लालच था जिससे राष्ट्रिय आन्दोलन कमजोर हो सके। अंग्रेजो का मानना था की कांग्रेस का एक तबका सत्ता और ऑफिस की चाह में समझौता करेगा, उग्र तबका विरोध करेगा और कांग्रेस अंतर कलह की शिकार होगी।
इसके साथ ही भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेज कम्युनल अवार्ड लेकर आये। इसके तहत प्रदेश असेम्बली में मुस्लिम के लिए सीटें आरक्षित कर दी गयी और ये भी कानून बना की इन सीटों के लिए सिर्फ मुस्लिम ही वोट दे सकते हैं।
हिन्दू सीटो पर सिर्फ हिन्दू खड़ा होगा और उसको वोट देने का अधिकार सिर्फ हिन्दू को। मुस्लिम सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार और वोट देने का अधिकार सिर्फ मुस्लिम को।
इसे ब्रिटेन का GOI 1935 एक्ट कहते हैं। इसके तहत पूरे अविभाज्य भारत में चुनाव घोषित हुए जिसमे कांग्रेस, मुस्लिम लीग एवं अनेको पार्टियों ने हिस्सा लिया।
UP में भी चुनाव हुए। UP के चुनावों में चार मुख्य पार्टियाँ थीं। कांग्रेस, मुस्लिम लीग , नेशनल एग्रीकल्चर पार्टी और हिन्दू महासभा।
उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष नेहरु थे। मुस्लिम लीग मृतप्राय पार्टी थी जिसमे नेता तो थे लेकिन कार्यकर्त्ता नहीं। जिन्नाह चार साल के सेल्फ एक्जाइल से लन्दन से वापस आये थे।
मुस्लिम लीग को दिशा देने की जिम्मेदारी उन्ही पर थी। और वो कांग्रेस के नक्शेकदम पर ही चले। कांग्रेस की तरह उन्होंने भी भारत की आजादी को अपना लक्ष्य बताया और इसके लिए हिन्दू मुस्लिम एकता की वकालत की। उन्होंने चुनावी जनसभाओ को अपने संबोधन में कहा की अंग्रेजो को सशत्र क्रांति से नहीं हटाया जा सकता और असहयोग आन्दोलन अभी तुरंत शुरू होना मुश्किल है ऐसे में हम विधान सभाओ के जरिये संविधान बदलने पर जोर देंगे, आजादी के आन्दोलन को इसके जरिये आगे बढ़ाएंगे। कमोबेश यही नीति कांग्रेस की भी थी।
लेकिन अंग्रेज इन दोनों ही पार्टियों को सत्ता में नहीं आने देना चाहते थे। NAP हिन्दू और मुस्लिम एलीट यानी रईसों और जमींदारो की पार्टी थी। अंग्रेज सरकार से समर्थित थी। चुनावों से पहले अंग्रेज सरकार ने गांवो के विकास के लिए रूरल डेवलपमेंट स्कीम लांच की जिसमे पूरे प्रदेश को 270 सर्किल में बांटा गया और हर सर्किल में १२ गाँव रखे गए। हर गाँव के लिए 5000 रूपये की रकम एलोट की गयी और इस रकम को खर्च करने के लिए जो कमेटी बनी उसका अध्यक्ष NAP के जमींदारो को बनाया गया। NAP पार्टी के उम्मीदवारों को सरकार की मदद थी। पैसा था, हिन्दू मुस्लिम यूनिटी थी।
हिन्दू महासभा भाई परमानन्द के निर्देशन में कांग्रेस के खिलाफ खड़ी हुई। उसने कांग्रेस को हिन्दू हितो के खिलाफ बताया। हिन्दू महासभा के अनुसार कांग्रेस के मंदिर प्रवेश अधिकार, छुआ छूत मिटाने के लिए कानून लाने का वादा हिन्दू धर्म को बर्बाद करने के लिए था। हिन्दू महासभा ने कांग्रेस के कई उम्मीदवारों जैसे सम्पूर्णानन्द आचार्य नरेन्द्र देव को नास्तिक कहते हुए उनके खिलाफ निजी दुष्प्रचार किया।
लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक दूसरे के साथ अघोषित समझौता किया। पूरे UP में 66 मुस्लिम सीटें थीं जिनमे सिर्फ तीन सीटों पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के उम्मीदवार एक दूसरे के आमने सामने थे। पंडित नेहरु अपनी चुनावी रैलियों में मुस्लिम जनसभाओं में कहते की जहाँ कांग्रेस उम्मीदवार नहीं है वहां मुस्लिम लीग को वोट दीजिये। इसी तरह जिन्नाह और मदनी साहब जैसे उलेमाओ ने कांग्रेस को वोट देने की अपील की। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने बहुत जगह कांग्रेस के लिए प्रचार किया। यहाँ तक की अपने वाइस चांसलर जिया साहब के साथ एक बार धक्का मुक्की की क्योंकि वो अपने एक रिश्तेदार जो NAP पार्टी से खड़े थे उनका प्रचार कर रहे थे।
ऐसे माहौल में सभी पंडितों ने कांग्रेस को मात्र 80 सीटें दी थी मुस्लिम लीग को 2-4 और NAP की सरकार बनने का दावा किया गया था। लेकिन हुआ उल्टा।
कांग्रेस ने 159 जनरल सीटों में 133 सीटें जीतीं, मुस्लिम लीग ने 66 में से 29 सीटें जीत सबसे बड़ी मुस्लिम पार्टी होने का अधिकार पाया।
सभी उम्मीद कर रहे थे की UP में कांग्रेस और मुस्लिम लीग मिलकर सरकार बनायेंगे। लेकिन कांग्रेस जो अपने अकेले दम पर बहुमत में आ गयी थी। उसने मुस्लिम लीग को अधर में छोड़ दिया। नेहरु-जिन्नाह का अघोषित समझौता ख़तम हो गया। जो परस्पर विश्वास आपस में कायम हुआ था वो ख़तम हो गया। मुस्लिम लीग जो 1937 तक नेशनलिज्म के रास्ते पर चल रही थी उसने अपनी प्राथमिकता मुस्लिम हितो को दे दी।
ये आज तक रहस्य है की कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार क्यों नहीं बनाई। लेकिन उसके बाद दोनों पार्टियों में जो तनाव पैदा हुआ जो अविश्वास पैदा हुआ वो कभी नहीं भरा।
इस कहानी का अंत भारत के विभाजन में हुआ।
साभार : कुछ किताबें, कुछ इन्टरनेट